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बिना किसी गलती के रोज सताते हो, तुम मुझे रोज याद आते हो...

                 तुम्हारी यादें
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तुम मुझे रोज़ याद आते हो,
बिना किसी गलती के रोज़ सताते हो,
जिस मोड़ पर तुमने थामा था मेरा हाथ,
उस मोड़ पर रोज़ तुम्हें ढूढ़ने जाती हूँ..
नयन थक जाते हैं और तुम्हें बिना पाए रोज़ खाली हाथ लौट आती हूं।
तुम रोज़ मुझे याद आते हो,
मैं हर मंदिर.. हर मस्जिद में तुम्हें पाने की आरज़ू लेकर जाती हूं,
वहां से भी खाली हाथ लौट आती हूं,
कोई बता दे मैं कहां करूं सजदा, जहां से तुम मुझे मिल जाओ।
तुम मुझे रोज़ याद आते हो,
तुम्हारी यादों को लिफ़ाफ़े में महफूज़ कर दिया है मैंने,
जब याद आये तुम्हारी खोल लिफाफा फिर उन्हें ताज़ा कर लेती हूं,
हसरतें फिर जाग जाती हैं तुम्हारे संग ज़िन्दगी जीने की,
लौट आओ ये यादें रोज़ मुझे मारती हैं...
तुम मुझे रोज़ याद आते हो.....
    ■ ऋतु✍️

(देव सर ने अगली कविता के लिए स्नेहिल शुभकामनाएं दी थीं, तो मैंने फिर से कुछ लिखने का प्रयास किया है---- ऋतु)
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